मगध का उत्कर्ष 

कोई भी राष्ट्र तब तक उन्नति नहीं कर सकता जब तक वहां के लोगों में ऊर्जा का संचालन न हो और ये स्थिति तब की है जब मनुष्य का कोई स्थायी क्षेत्र नहीं था क्यूंकि वे एक स्थान से दूसरे स्थान पर भ्रमण करते रहते थे | उनके पास ऐसा कोई स्रोत नहीं था जिसके माध्यम से वो विकास की ओर अग्रसर हो सकें लेकिन छठीं शताब्दी तक आते आते कृषि, व्यापर, उद्द्योग, आदि क्षेत्रों में उरूज की झलक दिखाई पड़ी | जनपदों का विस्तार प्रारंभ हुआ जिसके कारण इन्हें महाजनपद की संज्ञा दी गई | सोलह महाजनपद का वर्णन बौद्ध साहित्य के ग्रंथ अंगुत्तर निकाय में मिलता है इससे ज्ञात होता है किये 16 महाजनपद बुद्ध के पहले अस्तित्व में थे | महाजनपदों के नाम निम्नलिखित है 



काशी   (उ.प्र.) 
कौशल   (उ.प्र.)     
वत्स   (उ.प्र.)
मल्ल   (उ.प्र.)
पांचाल   (उ.प्र.)
चेदि   (उ.प्र.)
कुरु   (उ.प्र.) 
शूरसेन   (उ.प्र.)
मगध   (बिहार) 
अंग   (बिहार) 
वज्जि   (बिहार)
मत्स्य   (राजस्थान) 
अवन्ती   (म.प्र.) 
अस्मक   (दक्षिण भारत)
गांधार   (पाकिस्तान का पश्चिमि तथा अफ़ग़ानिस्तान का पूर्वी क्षेत्र)
कम्बोज   (पाकिस्तान का हजारा जिला)

इन सभी में सर्वाधिक शक्तिशाली एवं प्रभावी महाजनपद मगध था, जो अंग के पश्चिम में स्थित था| वर्तमान का पटना और गया जिला इसमें शामिल था| पाँच पहाड़ियों (वैहार, वराह, वृषभ, ऋषिगिरि, चैत्यक) के मध्य स्थित राजगृह जो मगध की प्राचीन राजधानी थी| गिरिव्रज को भी इसकी राजधानी बताया जाता है| कालांतर में उदायिन ने मगध की राजधानी राजगृह से पाटलिपुत्र में परिवर्तित कर दिया| सोलह महाजनपदों में मगध ही वो राज्य था जिसके राजनीतिक वर्चस्व का अविरल विकास होता गया| जो विशेषताएँ, स्थिति और संसाधन मगध में देखने को मिले वो अन्य 15 महाजनपदों में नही थे| शनैः शनैः ये छोटा सा राज्य एक साम्राज्य में परिवर्तित हो गया| 
अपने साम्राज्य की संस्कृति और सभ्यता को कायम रखने के लिए मगध ने न सिर्फ इसकी प्रत्येक श्रृंखला का उत्थान किया बल्कि भारत में एकता एवं स्थिरता का भी प्रभुत्व स्थापित किया| इतिहास हमे हमारे अतीत से परिचित कराता है तथा भावी में आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करता है, उसी प्रकार मगध में जितनी भी घटनाये हुई चाहे वो राजनैतिक हो या आर्थिक सबका अपना महत्त्व है, इसीलिए मगध का इतिहास अभिरम्य है| 

मगध को भली भांति जानने के कई ऐतिहासिक स्रोत अथवा बिंदु हैं 

मुख्यतः मगध के इतिहास की जानकारी दीपवंस, महावंस, पुराण तथा सिंहली ग्रंथ आदि से प्राप्त होती है| इसके अतिरिक्त जातक ग्रंथ, चुल्ल्वग्ग, भगवतीसूत्र, सुत्तनिपात एवं सुमंगलविलासिनी के माध्यम से प्रख्यान प्राप्त होता है| राय चौधरी का मत है कि मगध साम्राज्य की एक मुख्या प्रवीणता थी कि वहां के लोगों के आचरण में अनुकूलशीलता एवं उदारता की भावना थी| बुद्धकाल में मगध ने सभी महाजनपदों को अपने अधीन कर साम्राज्य का विस्तार किया| तथ्यात्मक रूप से बुद्धकाल में चार राज्यों (मगध, कोशल, अवन्ती, वत्स) में से मगध का ही उत्थान हुआ और इन चार राज्यों में राजतान्त्रिक शासन व्यवस्था थी| सोलह महाजनपदों में मात्र दो महाजनपद (वज्जि और मल्ल) ऐसे थे जहाँ पे गणतंत्रात्मक शासन व्यवस्था थी| अनेकों विशेषताएँ होने के कारण मगध को चर्मोत्कर्ष की प्राप्ति हुई| जो इस प्रकार है - 

भौगोलिक स्थिति

प्राकृतिक दृष्टिकोण से मगध एक सुरक्षित एवं प्रभावी राज्य था| इसकी प्रथम राजधानी गिरिव्रज या राजगृह थी, जो पाँच पहाड़ियों से घिरी हुई थी इससे यह स्पष्ट है कि मगध पर किसी शत्रु का आक्रमण होना असंभव था| बाद में पाटलिपुत्र मगध की राजधानी घोषित की गयी| पाटलिपुत्र गंगा और सोन नदियों के समागम पर स्थित था| इसके चारों दिशाओं में नद्यों का उद्गम था जिसमे मगध गंगा, घाघरा, गंडक तथा सोन नदियों के संरक्षण में था| मगध अपने भौगोलिक विशेषता के कारण ही अनवरत अभ्युदय की ओर बढ़ता रहा| 

प्राकृतिक वरदान 

वह मूलतत्व जिससे जगत का प्रणयन हुआ है, उसे ही प्रकृति कहते हैं| मगध की भौगोलिक दशा जितनी सुदृढ़ थी उससे कई गुना व्यवस्थित यहाँ का प्राकृतिक संसाधन था| मगध राज्य में तांबा और कच्चा लोहा जैसे खनिज पदार्थ बड़े पैमाने पर पाए जाते थे जिससे हथियारों का बनना शुरू हुआ और ये विलक्षणता मगध के अतिरिक्त किसी अन्य राज्यों में नही थी लेकिन अवन्ती (पूर्वी मध्य प्रदेश) की राजधानी उज्जैन के समीपवर्ती लोहे की खान बहुतायत थे अतः अपने प्रभुत्व को अडिग बनाये रखने के लिए मगध ने अवन्ती के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित करने का प्रयास किया और उज्जैन को अधीनस्थ करने में मगध को सौ वर्ष का समय लगा| 

लोहे की खान की प्रचुरता के कारण भिन्न भिन्न शस्त्रों का सृजन किया जाने लगा जिससे जंगलों को साफ़ करके कृषि योग्य भू भाग का व्यापक रूप से विस्तार हुआ| गंगा नदी भी व्यापर का एक प्रमुख केंद्र बनी| आर्थिक रूप से मगध में नव्य उद्द्योग, कार्य कलाप की अवस्था उच्चतम शिखर पर आ चुकी थी| नदियाँ अपने साथ उपजाऊ मिट्टी बहाकर लती थी जिसके कारण यहाँ की भूमि अतिशय उर्वर थी और धान का उत्पादन अत्यधिक मात्रा में होता था| गंडक, सोन तथा गंगा नदियों के माध्यम से होने वाले व्यापर के जरिये भी मगध लाभान्वित होता था एवं मगध साम्राज्य के राजकोषीय भू राजस्व में वृद्धि का स्तर बढ़ने लगा जिससे मगध अन्य महाजनपदों की तुलना में अधिक शक्तिशाली हो गया| 

योग्य एवं प्रवीण शासक 

मगध के उत्कर्ष में न सिर्फ भौगोलिक, प्राकृतिक अथवा भौतिक स्थिति समृद्ध थी बल्कि प्रजा एवं योग्य शासक का भी अहम् योगदान रहा है| कहा जाता है कि मगध की प्रजा अपने नरेश को अपना सब कुछ प्रदत्त कर देती थी| मगध प्रदेश में ब्राम्हण शूद्रों को स्वीकार कर लेते थे यहाँ तक की सम्राट भी अपने प्रासाद में शूद्र युवतियों तो आश्रय देते थे| हालाँकि मगध में भी राजतंत्रात्मक शासन व्यवस्था थी किन्तु उपर्युक्त विशेषताएँ अन्य राज्तान्तान्त्रिक प्रदेशों में नही थी| 
मगध में बिम्बिसार, अजातशत्रु, शिशुनाग और महापद्मनंद जैसे चिंतनशील एवं प्रतिभायुक्त शासकों का आगमन हुआ जिन्होंने अपनी कुशलता एवं पूर्व दृष्टि से मगध का उत्क्रमण किया| राजाओं ने प्राकृतिक संसाधनों का सदुपयोग कर राज्यहित में कार्य किया और मगध को प्रथम साम्राज्य की श्रेणी में रखा गया| 

नगरों का उद्भव एवं सैन्य समूह 

 छठीं शताब्दी में भारत के उत्तर पूर्व क्षेत्रों में वाणिज्य नवी उद्द्योग आसान भाषा में व्यापारिक क्षेत्र में सिक्कों के प्रचलन से नगरों का उत्थान हुआ जिससे नगरों में कई तरह के व्यवसाय का प्रचलन शुरू हुआ| इससे शासकों को भी लाभ हुआ और इस परिस्थिति को ध्यान में रखते हुए व्यापारियों से चुंगी, शुल्क आदि प्रकार के कर वसूले जाने लगे और मुख्यतः ये कर सैन्य संगठन में प्रयोग किये जाते थे| मगध में सैन्य स्थिति बेहद ही मजबूत और सक्रिय थी| यहाँ के राज्य तुरंग और रथ के प्रयोजन से भली भांति परिचित थे जिसमे मगध प्रदेश की सेना का एक श्रेष्ठ अंग गज सेना थी| गज सेना के सामर्थ्य पर दुर्ग को भी नष्ट किया जा सकता था|

यूनानियों के अनुसार नन्द वंश की सेना में छः हजार हाथी थे| जहाँ से हाथियों की आपूर्ति होती थी वो मगध राज्य का पूर्वी भाग था और वो मगध ही था जिसने सर्वप्रथम शत्रुओं के विरुद्ध युद्ध के दौरान हाथियों का प्रयोग किया था और मगध की गज सेना अगम्य स्थानों पर भी अडिग रहती थी| तो ये कहा जा सकता है कि हाथियों की प्रभूत का मगध के उत्कर्ष में विशेष योगदान रहा| 




मगध में सांस्कृतिक प्रभाव 

अन्य राज्यों की अपेक्षा मगध में एक स्वतंत्र वातावरण विद्यमान था, जहाँ अनेकों जातीय तथा संस्कृति का एक प्रमुख केंद्र था| मगध न सिर्फ उत्कृष्ट एवं ओजस्वी नरेशों की जन्मभूमि थी बल्कि बौद्ध तथा जैन धर्म के आदित्य का केंद्र था| बदलती हुई सामाजिक स्थिति तथा अर्थव्यवस्था का चरम तक पहुँचना भी विकास का एक मुख्य स्रोत बना| संस्कृत भाषा का भी खूब प्रचलन था, बुद्धजीवियों से लेकर ब्राम्हण की भाषा संस्कृत ही थी|

मगध अपने आप में इतना शक्तिवान हो चुका था कि अन्य राज्य उसके समक्ष खुद को कमजोर मानने लगे थे लेकिन ऐसा था नही क्योंकि वज्जि तथा अवन्ती जैसे प्रदेश भी मजबूत थे जो कुछ समय पश्चात् मगध के अधीन हो गये| इन राज्यों की चर्चा अग्रिम लेख में है| 
मगध साम्राज्य का प्रथम उल्लेख अथर्ववेद में प्राप्त होता है| पुराणों तथा बौद्ध ग्रंथों से भी मगध के प्रारंभिक इतिहास को समझा जा सकता है| मगध में शासन व्यवस्था को लेकर कई मत है, जैसे - पुराणों के अनुसार, मगध का प्राचीनतम राजवंश बृहद्रथ वंश था| महात्मा बुद्ध के पहले बृहद्रथ और जरासंध मगध के प्रतिष्ठित नरेश थे| जरासंध ने काशी, कोशल, अंग, चेदि, कलिंग, (उड़ीसा का प्राचीन नाम) गांधार, विदेह तथा कश्मीर के शासकों को परास्त किया और गिरिव्रज को मगध की राजधानी के रूप में स्थापित किया इसके बाद प्रद्दोत वंश अस्तित्व में आया, इस वंश को समाप्त कर शिशुनाग ने शिशुनाग वंश की स्थापना की| लेकिन बौद्ध साहित्य में शिशुनाग वंश का वर्णन नही मिलता है| अंत में मगध पर नन्द वंश का शासन कायम हुआ| 

डॉ. राय चौधरी के सदृश में मगध में सर्वप्रथम हर्यंक वंश का आगमन होता है जिसकी स्थापना बिम्बिसार ने की थी| अलग-अलग इतिहासकारों के भिन्न-भिन्न मत है - कुछ का कहना है की बिम्बिसार हर्यंक तथा नागकुल से ताल्लुक रखते है| पुराणों के अनुसार बिम्बिसार शिशुनाग वंश के थे| अश्वघोष के ग्रंथ (बुद्धचरित) में बिम्बिसार को हर्यंक वंश का बताया गया है| 

हर्यंक वंश के प्रमुख शासक 

बिम्बिसार  (544-492 ई.पू)
अजातशत्रु  (492-460 ई.पू)
उदायिन/उदयभ्द्र  (460-444 ई.पू)
अनिरुद्ध  (444-440 ई.पू)
मुण्डक  (440-437 ई.पू)
नाग्दशक  (437-412 ई.पू) 
      
बिम्बिसार 544-492 ई.पू

यदि मगध के उत्कर्ष में किसी का सर्वाधिक योगदान है तो वो बिम्बिसार ही था जिसने वास्तविक रूप से मगध साम्राज्य की नींव रखी| बिम्बिसार के पिता के नाम को लेकर काफी विवाद है| मत्स्य पुराण में इनके पिता को क्षेत्रौजस या क्षेत्रीजा कहा गया है, टर्नर के अनुसार उनका नाम भातिय अथवा भट्टिय था| कहा जाता है की क्षेत्रीजा ने अपना राजपाठ बिम्बिसार को सौंप दिया था और बिम्बिसार ने महज 15 वर्ष की आयु में अपने पिता की राजगद्दी संभाली थी| एक कुशल राजनीतिज्ञ और प्रवीण शासक से भी मगध अत्यधिक प्रभावी हुआ| बी.आर अम्बेडकर का मत है की बिम्बिसार सर्वप्रथम लिच्छिवियों के सेनापति के रूप में था फिर बाद में मगध का सम्राट बना| भंडारकर ये भी कहते हैं की लिच्छिवियों का शासन मगध पर भी था| जैन ग्रंथों में बिम्बिसार को श्रेणिक बताया गया है| 

अवन्ती, वत्स तथा कोशल जैसे राज्य मगध को पछाड़ सकते थे लेकिन ये स्थिति न आये इसलिए बिम्बिसार ने अपनी सत्ता को कायम रखने के लिए और इन प्रदेशों से जुड़ने के लिए उसने मैत्री सम्बन्ध को आधार बनाया| मैत्री सम्बन्ध के साथ-साथ वैवाहिक सम्बन्ध को भी स्थापित किया| क्रमानुसार बिम्बिसार ने कोशल नरेश महाकोशल की पुत्री कोशलदेवी से विवाह कर लिया| कोशलदेवी प्रसेनजीत की बहन थी| इस विवाह के पश्चात् कोशल और मगध में मित्रता स्थापित हुई साथ ही काशी (एक लाख का वार्षिक आय) दहेज़ के रूप में बिम्बिसार को प्राप्त हुआ|

 बिम्बिसार ने लिच्छवी गणराज्य के सम्राट चेटक की पुत्री छेलना या चेलना के साथ विवाह करके मगध के उत्तरी सीमा को रक्षित कर लिया| इससे मगध को कई लाभ हुए जैसे - वैशाली के व्यापारिक परिधि में प्राधान्य हासिल हुआ और दक्षिणी छोर पर प्रवाहित होने वाली गंगा नदी के माध्यम से बड़े पैमाने पर व्यापर का स्तर बढ़ना शुरू हुआ| बिम्बिसार ने तीसरा दाम्पत्य मद्र प्रदेश (पंजाब) की कन्या क्षेमा के साथ स्थापित किया| मद्र कुरु राज्य के समीप था| महावग्ग में कहा गया है की बिम्बिसार की कुल 500 रानियाँ थी| निःसंदेह ये कहा जा सकता है कि बिम्बिसार द्वारा बनाये गये वैवाहिक सम्बन्ध ने मगध साम्राज्य का अत्यधिक विस्तार किया|

मैत्री सम्बन्ध - एक राजा अपनी सत्ता को मजबूत बनाने के लिए हर तरह के प्रयास करता है चाहे वो किसी की यातना का कारण ही क्यों न बनें| बिम्बिसार के समकालीन अवन्ती भी एक समृद्ध तथा शक्तिशाली राज्य हुआ करता था और यहाँ का नरेश प्रद्दोत बेहद ही तीक्ष्ण और आक्रोश प्रवृत्ति का था| इस लक्षण को ध्यान में रखते हुए बिम्बिसार ने विवेकपूर्ण प्रद्दोत से मित्रता कर ली| इसके पीछे एक छोटी सी कहानी है जो बौद्ध ग्रंथ के विनयपिटक में उल्लेखित है - एक बार प्रद्दोत पांडुरोग (पीलिया) से ग्रस्त हो गये थे इस दौरान बिम्बिसार ने अपने राजवैद्य जीवक को प्रद्दोत के उपचार के लिए अवन्ती भेजा था| इस प्रकार प्रद्दोत और बिम्बिसार के मध्य मैत्री सम्बन्ध और अधिक मजबूत हो गया| सिन्धु नरेश पुष्कर रुद्रायन तथा गंधार नरेश पुष्कर सारिन से भी बिम्बिसार का अच्छा व्यवहार था| 

बिम्बिसार, जो अपने साम्राज्य के विस्तार को लेकर पूर्ण रूप से लक्षित था और अब उसने अंग को फतह कर अपने सामराज्य में शामिल कर लिया| अंग का शासक ब्रम्ह्दत्त परास्त हुआ और बिम्बिसार के हाथों मारा गया| जिसके बाद बिम्बिसार ने अपने पुत्र अजातशत्रु को वहां का उपराजा घोषित कर दिया| अंततः बिम्बिसार ने वज्जि की राजकुमारी चेल्लना से विवाह किया|

शासन प्रणाली - बिम्बिसार एक पराक्रमी शासक था जिसने मगध को एक स्वरुप प्रदान करने के लिए सबसे अधिक जोर दिया| डॉ. राय चौधरी का कहना है कि बिम्बिसार की सफलता का श्रेय राज्य के प्रशासन को जाता है जो की कुशलता एवं सशक्त से परिपूर्ण था| बौद्ध ग्रंथ में बिम्बिसार के कुछ अधिकारियों का विवरण मिलता है जिसमे उपराजा, महामात्त, मांडलिक, सेनापति, ग्रामभोजक आदि| ग्रामभोजक गाँव के प्रमुख होते थे जिनका कार्य गाँव में कर वसूलना था| तथ्यात्मक रूप से कहा जाता है कि बिम्बिसार ने 80 हजार गमिनियों की एक सभा आयोजित की थी, गामिनी गाँव के मुखिया और प्रतिनिधि को कहा जाता था| बिम्बिसार के साम्राज्य में स्थायी सेना हुआ करती थी| 

न्याय प्रणाली - विनयपिटक के अनुसार उस समय अपराधियों को कठोर सजा दी जाती थी| कोड़े लगाने से लेकर मृत्यु दंड तक का कानून था| जो अधिकारी राज्य के नियमों के विरुद्ध कार्य करता उसे उसके पद से अपदस्थ कर दिया जाता वहीँ दूसरी तरफ जो राज्य के हित में कार्य करता उसे सम्मानित भी किया जाता था|
विख्यात वास्तुकार महागोविंद के निर्देशन में राजगृह का निर्माण हुआ था जिसे बिम्बिसार ने मगध की नवीन राजधानी के रूप में स्थापित किया| बौद्ध और जैन दोनों ही बिम्बिसार को अपना अनुयायी बताते है| बिम्बिसार ने बुद्ध के रहने के लिए वेणुवन नमक आश्रम बनवाया था| इसके आलावा उसने भिक्षुकों के लिए तरपण्य किया मतलब ऋषियों तथा भिक्षुओं के लिए जल दान दिया जिससे भिक्षु आसानी से नदी पार कर आ जा सकते थे| बिम्बिसार की हत्या उसके पुत्र अजातशत्रु द्वारा हुई|

अजातशत्रु 492-460 ई.पू 

अजातशत्रु बिम्बिसार का पुत्र/उत्तराधिकारी था| पुराणों में इसका नाम कुणिक बताया गया है और बौद्ध ग्रंथों में अजातशत्रु तथा वैदेहीपुत्र कहा गया है| जैन ग्रंथ में रानी वैदेही का उल्लेख किया गया है इसलिए अजातशत्रु (बिम्बिसार का पुत्र) को विदेहीपुतो भी कहा गया है| अजातशत्रु ने तीन राज्यों का विलय अपने साम्राज्य में किया| सर्वप्रथम कोशल राज्य के साथ अजातशत्रु ने अपना सम्बन्ध स्थापित किया| बिम्बिसार की मृत्यु से व्यथित होकर महाकोशला/कोशलदेवी ने अपने प्राण त्याग दिए, जिसके बाद कोशल नरेश (प्रसेनजीत) ने कासी पर कब्ज़ा कर लिया| ये युद्ध दो चरणों में हुआ - पहले चरण में अजातशत्रु ने कोशल पर आक्रमण किया और जीत गया लेकिन युद्ध के दूसरे चरण में अजातशत्रु परास्त हो गया औए प्रसेनजीत ने उसे बंदी बना लिया| शांति स्थापित करने के लिए उसने अजातशत्रु को स्वतंत्र कर दिया और अपनी पुत्री वाजिरा का विवाह अजातशत्रु के साथ कर एक बार फिर से काशी प्रान्त दहेज़ के रूप में मगध को सौंप दिया| 

इसके बाद वज्जि संघ की बारी आई जिसमे लिच्छवी प्रमुख थे| इसको लेकर कई मत प्रस्तुत हैं जैसे - 

1- विनयपिटक के अनुरूप लिच्छवी निवासी रात्रि के समय मगध की राजधानी पर उत्तर दिशा से आक्रमण करते थे|
2- सुमंगलविलासिनी का मत है कि गंगा नदी घाटी पे रत्नों की खान थी, जिसे पाने की इच्छा वज्जि और मगध दोनों की थी |
3- वहीँ जैन ग्रंथ कहता है कि बिम्बिसार की पत्नी चेलना से दो पुत्र जन्मे थे - हल्ल और बेहल्ल, जो बिम्बिसार की मृत्यु के बाद अपने नाना (चेटक) के पास चले गये| बिम्बिसार ने उन्हें हाथीं और रत्न प्रदान किये थे, जिसे माँगने की चेष्टा अजातशत्रु ने की और चेटक के इंकार कर देने से ये भी युद्ध का एक कारण बना| 

मुख्यतः युद्ध का उद्देश्य मात्र गंगा नदी पर अधिकार और साम्राज्य का विस्तार करना था, जिससे व्यापारिक स्तर में वृद्धि होने की सम्भावना थी| वज्जि संघ का एक भाग था - लिच्छवी, जो बेहद ही शक्तिशाली था जिसके लिए अजातशत्रु ने एक षड़यंत्र रचा, उसने अपने मंत्री वस्स्कार के जरिए वज्जि संघ में विरोध उत्पन्न करवाया और राज्य की हिफाज़त के लिए पाटलिपुत्र में एक किले का निर्माण (वज्जियों के द्वारा) करवाया| इसी युद्ध के दौरान अजातशत्रु ने अपने दो हथियारों का प्रयोग किया - रथमूसल और महाशिलाकंटक, सोलह वर्ष के बाद अजातशत्रु ने लिच्छवियों को पराजित कर विजय प्राप्त की साथ ही काशी, मल्ल और विदेह जैसे राज्यों को भी मगध में शामिल कर लिया| अजातशत्रु बौद्ध धर्म का अनुयायी था| भरहुत स्तूप के एक चबूतरे पर अजातशत्रु को बुद्ध की वंदना करते हुए दिखाया गया है| इसी के प्रशासन में प्रथम बौद्ध संगीति (राजगृह में) का आयोजन हुआ था, साथ ही इसने राजगृह में एक स्तूप का भी निर्माण करवाया था| गौरतलब है की अजातशत्रु के शासनकाल के 8वें वर्ष महात्मा बुद्ध का महापरिनिर्वाण हुआ था|

बिम्बिसार ने अवन्ती के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित किया था लेकिन अजातशत्रु का अवन्ती के साथ ऐसा कोई सम्बन्ध नहीं था| मज्झिम निकाय से विदित है कि चंड प्रद्दोत के अतिक्रमण से अजातशत्रु ने अपनी राजधानी राजगृह को महफूज रखने के लिए उसका (राजगृह) का दुर्गीकरण करवाया| इसमें सबसे बड़ी भूमिका वत्स राजा उदयन की है जिसने इस द्वंद्व का निवारण किया| मगध और अवन्ती के बीच पारस्परिक सम्बन्ध स्थापित करने का श्रेयउदयन को जाता है, कारण ये था कि अजातशत्रु की पुत्री पद्मावती का विवाह उदयन से हुआ था और उदयन चंड प्रद्दोत का भी जमाई था|




उदायिन 460-444 ई.पू 

बौद्ध एवं जैन ग्रंथों के अनुसार उदायिन (उदयभद्र) अजातशत्रु का पुत्र था| उदायिन ने अपने पिता की हत्या कर राजगद्दी अपने नाम कर ली| बौद्ध ग्रंथों में उदायिन को पित्रहन्ता कहा गया है वहीं जैन ग्रंथ परिशिष्टपर्वन उदायिन को पित्रभक्त कहता है, इसी ग्रंथ के अनुसार कुलीनों और अमात्यों (मंत्री) ने उदायिन को राजा बनाया| इसके पूर्व उदायिन (अजातशत्रु के शासनकाल में) चंपा का उपराजा था| इसने गंगा और सोन नदी के संयोग पर पाटलिपुत्र नामक नगर की स्थापना की, पाटलिपुत्र का एक नाम कुसुमपुर भी था| आगे चलाकर पाटलिपुत्र को ही अपनी राजधानी बनाया| उदायिन जैन मत को मानने वाला था और उसने पाटलिपुत्र में एक जैन चैत्यगृह का निर्माण करवाया था|

उदायिन शांत प्रवृत्ति का था| व्रत रखना तथा आचार्यों का उपदेश सुनना उसे शांति प्रदान करता था| एक दिन उपदेश सुनने के दौरान किसी ने उदायिन पर छूरे से हमला किया और उसकी मृत्यु हो गयी| हालांकि उदायिन के तीनों उत्तराधिकारी (अनिरुद्ध, मुंडक और नागदशक) अकुशल सिद्ध हुए| परिणामस्वरुप शासनतंत्र दुर्बल हो गया| बौद्ध ग्रंथों के अनुसार बिम्बिसार से नागदशक तक मगध के प्रत्येक राजाओं ने अपने पिता की हत्या की थी, इसीलिए हर्यंक वंश को पित्रहन्ता वंश भी कहते है| यही कारण था कि नागदशक को राजसिंहासन नही प्राप्त हुआ और सत्ता में एक योग्य शासक (शिशुनाग) का पदार्पण हुआ|

शिशुनाग वंश के प्रमुख शासक 

शिशुनाग  (412-394 ई.पू)
कालाशोक/काकवर्ण  (394-366 ई.पू)
नन्दिवर्धन/महानन्दिन  (366-344 ई.पू)

शिशुनाग 412-394 ई.पू

महावंश के अनुसार शिशुनाग, लिच्छवी राजा की वेश्या पत्नी की गर्भ से उत्पन्न हुआ था, वहीं पुराण में शिशुनाग को क्षत्रिय बताया गया है और यही मत सर्वमान्य है| हर्यंक वंश के अंतिम शासक नागदशक को पदच्युत कर शिशुनाग गद्दी पर बैठने वाला इतिहास का पहला शासक था, जिसे जनता द्वारा चुना गया| शिशुनाग एक प्रवीण और शक्तिशाली राजा था जिसने अवन्ती को जीतकर मगध का विस्तार मालवा तक किया| इस समय वत्स भी मगध के अधीनस्थ था, इससे मगध की आर्थिक स्थिति में भी वृद्धि हुई| शिशुनाग ने राजगृह से अपनी राजधानी वैशाली में परिवर्तित कर दी|

कालाशोक/काकवर्ण 394-366ई.पू

 कालाशोक को पुराणों में काकवर्ण कहा गया है| कालाशोक के शासनकाल में ही द्वितीय बौद्ध संगीति का आयोजन (वैशाली में) हुआ था और इसने पाटलिपुत्र को अपनी राजधानी बनाया| हर्षचरित के अनुरूप किसी व्यक्ति ने कालाशोक की हत्या कर दी थी और वो कोई और नहीं नन्द वंश का संस्थापक महापद्मनंद था| शिशुनाग का अंतिम  राजा नन्दिवर्धन था, जो मात्र 22 वर्ष ही शासन कर सका|

नन्द वंश के प्रमुख शासक 

महापद्मानंद/उग्रसेन (344 ई.पू)
पण्डुक
पण्डुगति 
भूतपाल 
राष्ट्रपाल 
गोविंषाडक
दशसिद्धक
कैवर्त 
धननंद (अंतिम शासक)

नन्द वंश शूद्र जाति से जोड़ा गया है, यद्दपि विदेशी एवं भारतीय स्रोतों में भी नन्दों को शूद्र कहा गया है| शिशुनाग वंश के अंतिम राजा महानन्दिन की शूद्र स्त्री से महापद्मानंद उत्पन्न हुआ था| महापद्मनंद के जन्म तथा जाति से सम्बंधित कई भिन्न-भिन्न मत है, जो कि निम्न्वत है -

1 - परिशिष्टपर्वन (जैन ग्रंथ) में महापद्मनंद को नापित या नाई पिता और वेश्या माता का पुत्र बताया गया है|
2 - महावंश (बौद्ध ग्रंथ) के अनुसार नन्द अज्ञात कुल से ताल्लुक रखते थे|
3 - महाबोधिवंश में इसका नाम उग्रसेन प्राप्त होता है|
4 - भागवतपुराण में लिखा गया है कि उग्रसेन के पास सेना और अधिक संपत्ति होने के कारण इसका नाम महापद्म पड़ गया|
5 - पुराणों में महापद्मानंद को एकछत्र, अनुल्लंघितशासक, भार्गव, अपरोपरशुराम, सर्वक्षत्रान्तक, एकराट, कलि का अंश जैसी उपाधियाँ प्रदान की गयी है| 
6 - उसने अपने मंत्री कल्पक (जैन मतानुयायी) के सहयोग से सभी क्षत्रियों का पतन कर दिया|

महापद्मनंद ने एक विशाल सेना का निर्माण किया था| कर्टियस के अनुसार नन्दों की सेना में 2 हजार रथ, 3 हजार हाथी, 20 हजार अश्वरोही और 2 लाख पैदल सैनिकों का संचालन किया गया था| अपनी इस मजबूत सेना का प्रयोग करके महापद्मनंद ने इक्ष्वाकु, अश्मक, कुरु, शूरसेन, पांचाल तथा काशी जैसे क्षेत्रों को जीतकर अपने साम्राज्य का उत्थान किया| महापद्मनंद ने कलिंग को भी जीता था, खारवेल के हाथीगुम्फा अभिलेख से  ये पता चलता है कि नन्द वंश के किसी राजा ने कलिंग में एक नाहर का निर्माण करवाया था| महापद्मनंद इतिहास का एकमात्र राजा था जिसने एक क्षत्र की उपाधि धारण की थी| महापद्मनंद के 8 पुत्र थे, जिन्होंने 12 वर्षों तक  शासन किया|

कथासरित्सागर के अनुसार नन्दों के पास 11 करोड़ स्वर्ण मुद्राएँ थी| नन्द शासकों ने विद्वानों को भी आश्रय दिया| पाणिनि महापद्मनंद का मित्र था| नन्द वंश के दरबार में वर्ष, उपवर्ष, कात्यायन, वररुचि जैसे महान विद्वान रहते थे|   

  
   

  

 

              

 
 






 

 




 


     

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