भारत के महान शूरवीर की कहानी : महाराणा प्रताप का इतिहास

महाराणा प्रताप भारत के सर्वश्रेष्ठ योद्धा थे। इतिहास में इनकी वीरता को साहस, पराक्रम, शौर्य, राष्ट्र भक्त तथा स्वाभिमान से दर्शाया गया है। महाराणा प्रताप एक ‌आदर्श शासक होने के साथ साथ एक ईमानदार और अपने प्रजा के प्रति दयालु भी थे। प्रजा को वो अपने परिवार की भांति मानते थे। ऐसा माना जाता है कि मुगल शासक बादशाह अकबर द्वारा भी इनकी प्रशंसा की गई है।

18 जून 1576 में हुए हल्दी घाटी के युद्ध में महाराणा प्रताप की सैन्य संख्या बहुत कम थी उसके बाद भी उस वीर शासक ने मुगलों को धूल चटा दिया। महाराणा प्रताप युद्ध कौशल में भी निपुण थे। महाराणा प्रताप की शौर्य गाथा न सिर्फ लोगों को गौरवान्वित करती है बल्कि अपनी वीरता से भारत में एक नए साम्राज्य की नींव भी रखी।

महाराणा प्रताप आज प्रत्येक भारतीय का गौरव हैं जिन्हें इतिहास में भी एक अहम स्थान प्राप्त है। आइए जानते हैं इस महान शौर्यवीर के बारे में साथ ही इनके जीवन से जुड़ी कुछ खास बातें:


महाराणा प्रताप की जीवनी : एक नज़र में

नाम : महाराणा प्रताप सिंह (9 मई 1540 से 19 जनवरी 1597)

पिता/माता : राणा उदय सिंह / महारानी जयवंताबाई

पत्नी : 11 पत्नियाँ

बच्चे : 5 बेटियाँ, 17 बेटे

घोड़े का नाम : चेतक

माना जाता है कि महाराणा प्रताप का पालन पोषण भीलों की कूका जाति ने किया था और इसीलिए उनके बचपन का नाम "कीका" था। राजस्थान के कुंभलगढ़ (उदयपुर) किले में राणा उदय सिंह और महारानी जयवंताबाई ने एक शूरवीर को जन्म दिया जो आगे चलकर महाराणा प्रताप के नाम से मशहूर हो गए।

महाराणा प्रताप बहुत जिद्दी थे उन्हें कोई भी अपने काबू में नहीं कर सकता पाता था और अपने पूरे जीवन में भी उन्होंने पराधीनता स्वीकार नहीं किया यहाँ तक की इतने बड़े साम्राज्य यानी मुगल साम्राज्य के समक्ष भी नहीं झुके।

महाराणा प्रताप जी को राजनैतिक परिस्थितियों के कारण 11 शादियँ करनी पड़ी थी। इनकी पहली पत्नी अजबदे पुनवर थी जो राज्य बिजोली (चित्तौड़ के अधीन) की राजकुमारी थी। अजबदे पुनवर एक विदुषी तथा सभ्य महिला थी। मुश्किलों में वो महाराणा प्रताप का साथ कभी नहीं छोड़ती थी उनका हौसला बनकर हमेशा उनके साथ रहती थी। प्रजा के हित के लिए सही फैसले लेने में उनकी मदद करती थी।

अजबदे पुनवर जो राणा जी की पहली पत्नी थी और उनसे अमर सिंह तथा भगवान दास नाम के दो पुत्रों की प्राप्ति हुई। अंत में अमर सिंह ही राजगद्दी के हकदार बनें। हालांकि महाराणा प्रताप को अपनी 11 पत्नियों से कुल 22 संतानों की प्राप्ति हुई थी।

महाराणा प्रताप एक स्वाभिमान शासक थे मुगलों से वो बहुत नफरत करते थे। उनके सौतेले भाईयों को मेवाड़ की राजगद्दी ना मिलने पर उन्होंने महाराणा प्रताप को अपना दुश्मन बना लिया और उनसे ईर्ष्या करने लगे। इसी का फायदा मुगलों ने उठाया और चित्तौड़ पर विजय प्राप्त की। इसके बाद राणा प्रताप और उनके पिता प्रजा की सुरक्षा के लिए किले से बाहर हो गए। इसके बाद भी महाराणा प्रताप शांति से नहीं बैठे बल्कि अपनी कुशलता तथा बुद्धि का प्रयोग कर फिर से उदयपुर को स्थापित किया।

यहाँ तक की अकबर ने कई दिनों तक महाराणा प्रताप को शांति का प्रस्ताव भी भेजा लेकिन राणा प्रताप उन सब को अस्वीकार कर देते। इसी के आवेश में आकर अकबर 18 जून 1576 में अपनी सेनाओं के साथ मिलकर महाराणा के विरुद्ध जाकर युद्ध का ऐलान कर दिया जिसे "हल्दीघाटी" का युद्ध नाम दिया गया।

हल्दीघाटी युद्ध की कहानी

हल्दीघाटी का युद्ध इतिहास का सबसे बड़ा युद्ध है। इस युद्ध में महाराणा प्रताप के ज्यादा से ज्यादा राजपूत मुग़लों के साथ मिल गए थे। इसके बाद भी महापराक्रमी महाराणा प्रताप सिंह का धैर्य बरकरार रहा। यै युद्ध राणा जी के साहस और और उनकी वीरता का प्रमाण है।

1576 में हुए हल्दीघाटी के युद्ध में मुगलों की शक्ति राजपूतों की अपेक्षा अधिक थी। मुगलों के पास 80 हजार विशाल सेना और युद्ध के लिए शस्त्र भी थे वहीं राजपूतों के पास केवल 20 हजार ही सैनिक थे। कितने आश्चर्य की बात है कि एक तरफ मुगलों की भारी सेना वहीं दूसरी तरफ महाराणा प्रताप की छोटी सी सेना जो युद्ध के लिए हल्दीघाटी गोगुंडा (राजस्थान) की युद्धभूमि में खड़ी थी महाराणा जी की सेना छोटी तो थी किंतु उनका साहस मुगलों की शक्ति से कई गुना ज्यादा था।


ये युद्ध काफी देर तक चला। महाराणा प्रताप की सैन्य शक्ति बहुत कम थी लेकिन वो पीछे नहीं हटे। इह युद्ध में महाराणा प्रताप घायल भी हो गए थे। महाराणा प्रताप का सबसे प्रिय घोड़ा - चेतक जो कि घायल हो गया था लेकिन 26 फीट नाले को पार कर महाराणा जी की जान बचाई और उन्हें नया जीवन दान मिला। चेतक जिस घोड़े का नाम था वो इसी युद्ध स्थान पर शहीद हो गया था। आज भी अश्व चेतक की समाधि हल्दीघाटी (राजस्थान) में बनी हुई है जिसमें चेतक की वीरता को दर्शाया गया है और हिंदी साहित्य में भी चेतक की बहुत सी रचनाएं आपको पढ़ने को मिलेंगी।

अंत तक महाराणा प्रताप मुगलों का सामना करते रहे। ऐसा माना जाता है कि हल्दीघाटी के इस युद्ध में ना तो मुगल शासक अकबर की विजय हुई और ना ही मेवाड़ के शौर्यवीर महाराणा प्रताप की हार हुई। हाँ, मुगलों की सैन्य शक्ति अत्यधिक मजबूत थी लेकिन महाराणा प्रताप के शौर्य तथा वीरता का भी प्रमाण मिलता है।

इस युद्ध के पश्चात महाराणा प्रताप की प्रसिद्धि दूर दूर तक फैल गई, देश भर में उनकी वीरता की सराहना की जाने लगी लेकिन युद्ध के बाद महाराणा जी को अपने जीवन का कुछ समय जंगल में व्यतीत करना पड़ा। बादशाह अकबर आगरा छोड़कर लाहौर चला गया। इसके बाद भी वह महाराणा जी को नुक्सान पहुँचाने की कोशिश करता रहा लेकिन वो असफल रहा।

महाराणा प्रताप के बारे में रोचक बातें

महाराणा प्रताप कोई साधारण मनुष्य नहीं थे। उनके कवच का वजन 72 किलो था जिसे वो अपने शरीर पर धारण करते थे। उनके भाले का वजन 81 किलोग्राम था जिसे वो रणभूमि में चेतक पर सवार होकर ले जाते थे। 2 तलवार और ढाल भी अपने साथ रखा करते थे। इस तरह वो करीब 208 किलो का भार लेकर चलते थे। कठिन संघर्ष के बाद मेवाड़ को पुनः हासिल कर विजय प्राप्त की और उन्होंने मेवाड़ राज्य में कई विकास करवाए ताकि राज्य में उपस्थित प्रत्येक जनता को सुविधाएं मिल सके।

आज महाराणा प्रताप हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनके अस्त्र शस्त्र जैसी कीमती चीजें उदयपुर राजघराने में सुरक्षित हैं।


महाराणा प्रताप का निधन एवं जयंती

मेवाड़ पर जीत हासिल करने के ठीक 11 साल बाद चवण (राजस्थान) में 19 जनवरी 1597 में वीर योद्धा महाराणा प्रताप का निधन हो गया। महाराणा प्रताप की मृत्यु पर उनके दुश्मनों की भी आँखें नम हो गई। महाराणा प्रताप दुनिया के एकमात्र ऐसे शासक थे जो केवल अपनी प्रजा के लिए जी रहे थे। प्रजा की भलाई और उनकी सुरक्षा के लिए उन्होंने बहुत कुछ किया।

मुग़ल शासक अकबर भी उनसे काफी प्रभावित था क्योंकि उसे पता था कि इस दुनिया में ऐसा पराक्रमी राजा दूसरा कोई नहीं है। युद्ध के दौरान महाराणा प्रताप जंगल में रहा करते थे और अकबर अपने सिपाहियों को जंगल में भेजकर उनकी खबर लिया करते थे।


वीर योद्धा महाराणा प्रताप सिंह की जयंती ज्येष्ठ मास की शुक्ल पक्षमी तीज को मनाया जाता है। इस दिन उन्हें सम्मान के साथ भावपूर्ण श्रद्धांजलि अर्पित किया जाता है। महाराणा प्रताप जी की ये कहानी जिसमें अटूट संघर्ष था लेकिन वो अपने मार्ग से डगमगाए नहीं। आज भी ये पराक्रमी और साहसी वीर लोगों के ह्रदय में विद्यमान है।

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